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1857 स्वतंत्रता का महासंग्राम

हरिकृष्ण देवसरे

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5659
आईएसबीएन :9788128817113

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डेढ़ सदी बीत जाने पर आज भी 1857 के महासंग्राम की गाथा आज भी जनमानस के हृदय से उतरी नहीं है...

1857 swatantrata ka mahasangram a hindi book by Hari Krishna Devsare - 1857 स्वतंत्रता का महासंग्राम - हरिकृष्ण देवसरे

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

देश के स्वतंत्रता संग्राम के विस्तृत इतिहास में वर्ष 1857 की भूमिका डेढ़, सदी बीत जाने के बाद भी न सिर्फ जनमानस में गहरे उतरती जा रही है, बल्कि उसका महत्त्व भी मुखर हो कर सामने आता जा रहा है इस जन आन्दोलन में अनेकों वीरों ने अपने रक्तप्राण का बलिदान सहर्ष दिया और अंतिम इच्छा यही प्रकट की, कि उनका देश ब्रिटिश राज से मुक्त हो जाए। यह स्मृतियां केवल इतिहास के पृष्ठों में संजोने के लिए नहीं है बल्कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी प्रसार पाने योग्य गौरव गाथा हैं, जिन्हें मानना देश को जानने जैसा ही पुण्य कार्य है। बिना आजादी का इतिहास जाने आजादी का मूल्य भला कैसे समझा जा सकता है और उसका मूल्य समझे बगैर हमारी पीढ़ियां उसकी रक्षा के लिए प्रणबद्ध कैसे हो पाएंगी ?
यह रोचक और तथ्यपूर्ण पुस्तक इसी दायित्व का वहन करते समाने आई है और निश्चित रूप से पाठक इसे मूल्यवान पाएंगे।
जब अंग्रेजों ने एक-एक करके भारत के राज्यों को हड़पना शुरू कर दिया, देश की जनता पर जुल्म का चक्कर चलाया तो भारत माता के बहादुर सपूतों ने देश को आजाद कराने के लिए सिर धड़ की बाजी लगा दी और देश को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह किया।
प्रस्तुत है उन्हीं बहादुर नौजवानों के संघर्ष की रोमांचक गाथा 1857 का स्वतंत्रता संग्राम।


1

इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ से, सन् 1600 ई. में कुछ अंग्रेज व्यापारियों ने भारत से व्यापार करने की अनुमति ली। उन्होंने इसके लिए जो कंपनी बनाई, उसका नाम रखा ईस्ट इंडिया कंपनी। उस समय तक भारत की यात्रा का समुद्री मार्ग पुर्तगाली यात्रियों ने खोज निकाला था। उस मार्ग की जानकारी लेकर और व्यापार की तैयारी करके, इंग्लैण्ड से सन् 1608 में ‘हेक्टर’ नामक एक जहाज भारत के लिए रवाना हुआ। इस जहाज के कप्तान का नाम हॉकिन्स था। हेक्टर नामक जहाज सूरत के बंदरगाह पर आकर रुका। उस समय सूरत भारत का एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था।

उस समय भारत पर मुगल बादशाह जहांगीर का शासन था। हॉकिन्स अपने साथ इंग्लैण्ड के बादशाह जेम्स प्रथम का एक पत्र जहांगीर के नाम लाया था। उसने जहांगीर के दरबार में स्वयं को राजदूत के रूप में पेश किया और घुटनों के बल झुककर उसने बादशाह जहांगीर को सलाम किया। चूंकि वह इंग्लैण्ड के सम्राट् का राजदूत बनकर आया था, इसलिए जहांगीर ने भारतीय परंपरा के अनुरूप अतिथि का विशेष स्वागत किया और उसे सम्मान दिया। जहांगीर को क्या मालूम था कि जिस अंग्रेज कौम के इस तथाकथित नुमाइन्दे को वह सम्मान दे रहा है, एक दिन इसी कौम के वंशज भारत पर शासन करेंगे और हमारे शासकों तथा जनता को अपने सामने घुटने टिकवा कर सलाम करने को मजबूर करेंगे।

उस समय तक पुर्तगाली कालीकट में अपना डेरा जमा चुके थे और भारत में व्यापार कर रहे थे। व्यापार करने तो हॉकिन्स भी आया था। उसने अपने प्रति जहांगीर की सहृदय और उदार व्यवहार को देखकर मौके का पूरा फायदा उठाया। हॉकिन्स ने जहांगीर को पुर्तगालियों के खिलाफ भड़काया और जहांगीर से कुछ विशेष सुविधाएं और अधिकार प्राप्त कर लिए। उसने इस कृपा के बदले अपनी सैनिक शक्ति बनाई।
पुर्तगालियों के जहाजों को लूटा। सूरत में उनके व्यापार को भी ठप्प करने के उपाय किए। और फिर इस तरह 6 फरवरी सन् 1663 को बादशाह जहांगीर से एक शाही फरमान जारी करवा लिया कि अंग्रेजों को सूरत में कोठी बनाकर तिजारत करने की इजाजत दी जाती है। इसी के साथ जहांगीर ने यह इजाजत भी दे दी कि उसके दरबार में इंग्लैण्ड का एक राजदूत रह सकता है। इसके फलस्वरूप सर टॉमस सन् 1615 में राजदूत बनकर भारत आया। उसके प्रयत्नों से सन् 1616 में अंग्रेजों को कालीकट और मछलीपट्टन में कोठियाँ बनाने की अनुमति प्राप्त हो गई।

शाहजहां के शासनकाल में, सन् 1634 में अंग्रेजों ने शाहजहां से कहकर कलकत्ते से पुर्तगालियों को हटाकर केवल स्वयं व्यापार करने की अनुमति ले ली। उस समय तक हुगली के बंदरगाह तक अपने जहाज लाने पर अंग्रेजों को भी चुंगी देनी पड़ती थी। लेकिन शाहजहां की एक बेटी का इलाज करने वाले अंग्रेज डॉक्टर ने हुगली में जहाज लाने और माल की चुंगी चुकाना माफ करवा लिया।

औरंगजेब के शासनकाल में एक बार फिर पुर्तगालियों का प्रभाव बढ़ चुका था। मुंबई का टापू उनके अधिकार में था। सन् 1661 में इंग्लैण्ड के सम्राट् को यह टापू, पुर्तगालियों से दहेज में मिल गया। बाद में सन् 1668 में इस टापू को ईस्ट इंडिया कंपनी ने इंग्लैण्ड के सम्राट से खरीद लिया।
इसके बाद अंग्रेजों ने इस मुंबई टापू पर किलेबंदी भी कर ली।
सन् 1664 में, ईस्ट इंडिया कंपनी की ही तरह भारत में व्यापार करने के लिए फ्रांसीसियों की एक कंपनी आई। इन फ्रांसीसियों ने सन् 1668 में सूरत में 1669 में मछलीपट्टन में, और सन् 1774 में पाण्डिचेरी में अपनी कोठियां बनाई। उस समय उनका प्रधान था-दूमास। सन् 1741 में दूमास की जगह डूप्ले की नियुक्ति हुई। लिखा है-‘‘डूप्ले एक अत्यंत योग्य और चतुर सेनापति था। उसके पूर्वाधिकारी दूमास को मुगल शासन के द्वारा ‘नवाब’ का खिताब मिला हुआ था। इसलिए जब डूप्ले आया तो उसने खुद ही अपने को ‘नवाब डूप्ले’ कहना शुरू कर दिया। डूप्ले पहला यूरोपीय निवासी था जिसके मन में भारत के अंदर यूरोपियन सम्राज्य कायम करने की इच्छा उत्पन्न हुई। डूप्ले को भारतवासियों में कुछ खास कमजोरियां नजर आईं। जिनसे उसने पूरा-पूरा फायदा उठाया।

एक यह कि भारत के विभिन्न नरेशों की इस समय की आपसी ईर्ष्या प्रतिस्पर्धा और लड़ाइयों के दिनों में विदेशियों के लिए कभी एक और कभी दूसरे का पक्ष लेकर धीरे-धीरे अपना बल बढ़ा लेना कुछ कठिन न था, और दूसरे यह कि इस कार्य के लिए यूरोप से सेनाएं लाने की आवश्यता न थी। बल, वीरता और सहनशक्ति में भारतवासी यूरोप से बढ़कर थे। अपने अफसरों के प्रति वफादारी का भाव भी भारतीय सिपाहियों में जबर्दस्त था। किन्तु राष्ट्रीयता के भाव या स्वदेश के विचार का उनमें नितांत अभाव था।

उन्हें बड़ी आसानी से यूरोपियन ढंग से सैनिक शिक्षा दी जा सकती थी और यूरोपियन अफसरों के अधीन रखा जा सकता था। इसलिए विदेशियों का यह सारा काम बड़ी सुन्दरता के साथ हिन्दुस्तानी सिपाहियों से निकल सकता था। डूप्ले को अपनी इस महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति में केवल एक बाधा नजर आती थी और वह थी अंग्रेजों की प्रतिस्पर्धा।’’ (भारत में अंग्रेजी राजः सुंदरलाल: प्रकाशन विभाग पृष्ठ 121)

डूप्ले की शंका सही थी। अंग्रेजों की निगाहें भारत के खजाने और यहां शासन करने पर लगी हुई थीं। इसका एक प्रमाण यह मिलता है कि सन् 1746 में कर्नल स्मिथ नामक अंग्रेज ने जर्मनी के साथ मिलकर बंगाल, बिहार और उड़ीसा विजय करने और उन्हें लूटने की एक योजना गुपचुप तैयार करके यूरोप भेजी थी। अपनी योजना में उसने लिखा था-मुगल साम्राज्य सोने और चांदी से लबालब भरा हुआ है। यह साम्राज्य सदा से निर्बल और असुरक्षित रहा है। बड़े आश्चर्य की बात है कि आज तक यूरोप के किसी बादशाह ने जिसके पास जल सेना हो, बंगाल फतह करने की कोशिश नहीं की। एक ही हमले में अनन्त धन प्राप्त किया जा सकता है,

जिससे ब्राजील और पेरु (दक्षिण अमेरिका) की सोने की खाने भी मात हो जाएंगी।"
"मुगलों की नीति खराब है। उनकी सेना और भी अधिक खराब है। जल सेना उनके पास है ही नहीं। साम्राज्य के अंदर लगातार विद्रोह होते रहते हैं। यहां की नदियां और यहां के बंदरगाह, दोनों विदेशियों के लिए खुले पड़े हैं। यह देश उतनी ही आसानी से फतह किया जा सकता है, जितनी आसानी से स्पेन वालों ने अमरीका के नंगे बाशिंदों को अपने अधीन कर लिया था।"
"अलीवरदी खां के पास तीन करोड़ पाउण्ड (करीब पचास करोड़ रुपये) का खजाना मौजूद है। उसकी सालाना आमदनी कम से कम बीस लाख पाउण्ड होगी। उसके प्रान्त समुद्र की ओर से खुले हैं। तीन जहाजों में डेढ़ हजार या दो हजार सैनिक इस हमले के लिए काफी होंगे।" (फ्रांसिस ऑफ लॉरेन को कर्नल मिल का पत्रः ‘कन्सीडरेशन्स ऑफ दि अफेयर्स ऑफ बेंगाल’, में लेखक बोल्ट द्वारा उद्घृत)

जनरल मिल ने कुछ अधिक ही सपना देखा था। किन्तु इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेज भी अपने ऐसे ही मनसूबों को पूरा करने में जुटे हुए थे। दरअसल विदेशियों द्वारा भारत को गुलाम बनाने की ये कोशिशें, भारतवासियों के लिए बड़ी लज्जाजनक बातें थीं-विशेष रूप से इसलिए कि इस योजना में स्वयं भारत के लोगों ने साथ दिया और आगे चलकर अपने पैरों में गुलामी की बेड़ियां पहन लीं। लिखा है-"अठारहवीं सदी के मध्य में बंगाल के अंदर हमें यह लज्जानक दृश्य देखने को मिलता है

कि उस समय के विदेशी ईसाई कुछ हिन्दुओं के साथ मिलकर देश के मुसलमान शासकों के खिलाफ बगावत करने और उनके राज को नष्ट करने की साजिशें कर रहे थे। अंग्रेज कंपनी के गुप्त मददगारों में खास कलकत्ते का एक मालदार पंजाबी व्यापारी अमीचंद था। उसे इस बात का लालच दिया गया कि नवाब को खत्म करके मुर्शिदाबाद के खजाने का एक बड़ा हिस्सा तुम्हें दे दिया जाएगा और इंगलिस्तान में तुम्हारा नाम इतना अधिक होगा, जितना भारत में कभी न हुआ होगा। कंपनी के मुलाजिमों को आदेश था

कि अमीदंच की खूब खुशामद करते रहो।" (भारत में अंग्रेजी राजः सुंदरलाल: पृष्ठ 126:)
कंपनी के वादों और अमीचंद की नीयत ने मिलकर, बंगाल के तत्कालीन शासक अलीवरदी खां के तमाम वफादारों को विश्वासघात करने के लिए तैयार कर दिया। उधर कलकत्ते मे अंग्रेजों की और चन्द्रनगर में फ्रेंच लोगों की कोठियां बनाना और किलेबन्दी करना लगातार जारी था। अलीवरदी खां को इसकी जानकारी थी। फिर जब उसे अमीचंद और दूसरे विश्वासघातकों की चाल का पता चला तो उसने उनकी सारी योजना विफल कर दी। लेकिन इन सब घटनाओं से अलीवरदी खां सावधान हो गया और पुर्तगालियों, अंग्रेजों और फ्रांसीसियों-तीनों कौंमो के मनसूबों का उसे पता चल गया।
बंगाल के नवाब अलीवरदी खां को कोई बेटा न था, इसलिए उसने अपने नवासे सिराजुद्दौला को, अपना उत्तराधिकारी बनाया था। अलीवरदी खां बूढ़ा हो चला था। वह बीमार रहता था और उसे अपना अंत समय निकट आता दिखाई दे रहा था। इसलिए एक दूरदर्शी नीतिज्ञ की तरह अपने नवासे सिराजुद्दौला को एक दिन पास बुलाकर कहा-"मुल्क के अंदर यूरोपियन कौमों की ताकत पर नजर रखना। यदि खुदामेरी उम्र बढ़ा देता, तो मैं तुम्हें इस डर से भी आजाद कर देता अब मेरे बेटे यह काम तुम्हें करना होगा।

तैलंग देश में उनकी लड़ाइयां और उनकी कूटनीति की ओर से तुम्हें होशियार रहना चाहिए। अपने-अपने बादशाहों के बीच के घरेलू झगड़ों के बहाने इन लोगों ने मुगल सम्राट् का मुल्क और शहंशाह की रिआया का धन माल छीनकर आपस में बांट लिया है। इन तीनों यूरोपियन कौमों को एक साथ कमजोर करने का ख्याल न करना। अंग्रेजों की ताकत बढ़ गई है। पहले उन्हें खत्म करना। जब तुम अंग्रेजों को खत्म कर लोगे तब, बाकी दोनों कौमें तुम्हें अधिक तकलीफ न देंगी। मेरे बेटे, उन्हें किला बनाने या फौजें रखने की इजाजत न देना। यदि तुमने यह गलती की तो, मुल्क तुम्हारे हाथ से निकल जाएगा।" ("बेंगाल इन 1756-1757", खण्ड 2 पृष्ठ 16)

10 अप्रैल सन् 1756 को नवाब अलीवरदी खां की मृत्यु हो गई। इसके बाद सिराजुद्दौला, अपने नाना की गद्दी पर बैठा। सिराजुद्दौला की आयु उस समय चौबीस साल थी। ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों ने साजिशों का पूरा जाल फैला रखा था। अंग्रेज नहीं चाहते थे
कि सिराजुद्दौला शासन करे। इसलिए उन्होंने सिराजुद्दौला का तरह-तरह से अपमान करना और उसे झगड़े के लिए उकसाने का काम शुरू कर दिया। सिराजुद्दौला जब मुर्शीदाबाद की गद्दी पर नवाब की हैसियत से बैठा तो रिवाज के अनुसार उसके मातहतों को, वजीरों, विदेशी कौमों के वकीलों को, दरबार में हाजिर होकर नज़रे पेश करना जरूरी था। लेकिन अंग्रेज कंपनी की तरह से सिराजुद्दौला को कोई नज़र नहीं भेंट की गई।

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